नारे सुआटा(लोक क्रीड़ा)
बुन्देलखण्ड में शारदीय नवरात्रि में कुँवारी लड़कियों द्वारा खेला जाने वाला नौरता ( खेल ) अब लुप्त होता जा रहा है। सुआटा नामक इस लोक क्रीड़ा पर्व की शुरुआत कब और कैसे हुआ इसके कोई अभिलेखीय पुष्ट और प्रामाणिक साक्ष्य भले ही नहीं है पर बुंदेलखंड में दो प्रचलित जनश्रुति है।
1. कहा जाता है की एक राक्षस था, जो कुंआरी कन्याओं को खा जाता था। इस राक्षस से बचने के लिए सभी बेटियों ने नवरात्रि में माता पार्वती की आराधना की और उन्होंने सभी बच्चियों को सुरक्षित कर लिया, और दैत्य को भस्म कर दिया परंतु राक्षस को बेटियों के द्वारा पूजे जाने का वरदान भी उसके मरते समय दे दिया इस राक्षस के भस्म होने की खुशी में आज भी बुंदेलखंड की बेटियां नौरता का आयोजन करती हैं पूरे गाँव से चन्दा इकट्ठा कर उस राक्षस के मारे जाने पर भोज करती है ।
2.ऐसा माना जाता है प्राचीनकाल में एक राक्षस था जो अविवाहित बालिकाओं को उठा ले जाता था। उस राक्षस से बचने के लिए लड़कियों ने भगवान कृष्ण की अराधना की। लड़कियों की पूजा से खुश होकर भगवान कृष्ण ने पूछा कि उन्हें क्या चाहिए लड़कियों ने भगवान कृष्ण को बताया कि सुआटा नाम का राक्षस 16 हजार कुंवारी लड़कियों से एक साथ शादी करना चाहता है, इसलिए वो कुंवारी कन्याओं को उठा ले जाता है। लड़कयों की व्यथा सुनने के बाद भगवान कृष्ण ने वरदान दिया कि टेसू नाम का एक वीर योद्धा आएगा और सुआटा को मरेगा । एक दिन सुआटा हिमाचल प्रदेश के राजा की बेटी झिंझिया को उठा ले गया । सुआटा झिंझिया समेत 16 हजार कुंवारी कन्याओं से शादी करने की तैयारी कर रहा था तभी टेसू आया और उसको मार डाला लेकिन मरने से पहले सुआटा ने भगवान की अराधना की और कुंवारी कन्याओं से पांव पखारने का वरदान मांगा । जो कन्याएं शादी से पहले उसका पांव पखारेंगी, पूजा करेंगी उन्हें वो परेशान नहीं करेगा । भगवान ने सुआटा की ये मांगे पूरी कर दी। तभी से उसकी पूजा कर कन्याएं उसे प्रसन्न करती है ताकि वो उनको परेशान ना करे। बुंदेलखंड की बेटियां नौरता का आयोजन पूरे गाँव से चन्दा इकट्ठा कर उस राक्षस के मारे जाने पर भोज करती है ।
यह उत्सव अश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होकर नवमी तक चलता है इस अवसर पर बालिकाएं
सुआटा की मिट्टी की प्रतिमा दीवार पर बनाती हैं, कांच तिलकी कौड़ियों से इस चित्र को सजाया संवारा जाता है, रंग बिरंगे चौक पूरे जाते है फिर काये उतारते हुए गाती हैं
तिल के फूल, तिली के दाने, चंदा ऊगे बड़े भुनसारे,
उगई न हो बारे चन्दा,
हर घर होय लिपना-पुतना
सास न होय, दे दे झरियां
ननद न होय चढ़ै अटरियां ….
परायी गौर की आंय देखो झांय देखो,का पैरें देखो, नाक नकटी देखो,आंख कानी देखो, कान बूचौ देखौ, फटी चुनरिया देखो
इस गाने का कोई अंत नहीं होता क्योंकि अपने आप इसमें गौर के वर्णन जोड़े जाते हैं। अब बारी आती है अपनी गौर की- हमायी गौर की आंय देखौ-झांय देखौ का पैरें देखो,नाक नथनी देखो हाथ कंगन देखो, पैरौं पायल देखो
फिर सिंगार कराते हुये कन्यायें गाती हैं..
गोरा अपनो सिंगार…
रानी मोहिं को दियो….
इसके बाद कबीर जैसी उलटबाँसी का दौर…
गोरा माँगे इछुवा..हम चढ़ावें विछुवा
गौरा माँगे आयल .हम चढ़ावें पायल
गोरा माँगे अँगना ..हम चड़ावे कँगना…..इत्यादि इत्यादि। और भी लोकगीत चलते हैं
घोड़ा मारी लाता, जा पड़ी गुजराता,गुजरात के रे बानियां , बम्मन-बम्मन जात के, जनेऊ पैरें तांत के. टीका देवें रोरी को,हाथ चरावें कोरी को,आओ-आओ अंगना-अंगना तो खों पूजें टंगना.साड़े-गाड़े फूल चढ़ावें, गौर की बिन्नाई चढ़ावें. गौरा रानी कहां चली, महुआ के पेडें. महुआ सियाराम को -पानी पिया राम को,तिल के फूल तिली के दानें. चन्दा उगै बड़े भुन्सारें, तुमारे घरै होय लिपना-पुतना, हमाय घरै होंय भोजना-पनियां ।कौन सखी-री मोरी सुरजा बेटी, नेरा तौ अनायें सुआटा . नेरा तौ अनैयौ बेटी नौ दिना नारे सुअा हो नवमें खों करियौ उपास सुआ. दसयें खों दसरऔ जीतियौ नारेसुआ हो नमयें खौं करियो उपास सुआ
कौन सखी मोरी सुरजा वेटी नेरा तो अनाँय सुआ …………..
इस अनूठे खेल का एक हिस्सा मामुलिया भी होती है छोटी छोटी लडकिया कांटोंदार टहनियों में रंग बिरंगे फूलों से मामुलिया सजाती हैं ,नवरात्रि के पंचमी को मामुलिया के गीत गाती हुई गांव की गलियों से गुजरती और सुआटा के भोज के लिए पैसे उगाती है
टेसू और झिंझिया के विवाह के सम्बन्ध में मान्यता है कि टेसू नामक एक योद्धा ने सुआटा राक्षस को मार
झिंझिया चंगुल से छुड़ाकरझिंझिया से विवाह कर लिया तबसे झिंझिया गायन और नृत्य की परंपरा चली
आ रही है , शारदीय नवरात्रि में अष्टमी से पूर्णिमा की
रात्रि तक झिंझिया उत्सव मनाया जाता है, इस उत्सव में महिलाएं मटकी में कई छेद करके उसमें दीपक रखती हैं, इस झिलमिल प्रकाश से प्रकाशित मटकी को अपने सिर पर रखकर नृत्य करती है और उसके चारों ओर थाप और वाद्य यंत्रों की धुन में झिंझिया गीत गाये जाते हैं, बालिकायें आशीर्वाद के अक्षत घरों में डालती हैं और झिंझिया गाती हैं –
“पूँछत-पूँछत आये हैं नारे सुआटा,
कौन कक्का ज़ू की पौर सुआ”
पोर के पौर ईया भैया सो गये ?
“निकरो दुलईया रानी बायरें। नारे सुआटा
बिटियन देव अाशीष सुआ ।
“‘नौनी सलौनी भौजी,
कंत तुम्हारे भौजी,
वीरन हमारे भौजी,
झिल-मिल झिल-मिल आरसी महादेव तोरी पारसी । ह्य चूल्हे पीछें हड़ा गड़ो है, ऊ में धरी अशीस सुआ।
सामूहिक एकत्र सामग्री से कुँवारी कन्यायें खेल वाले स्थान पर अष्टमी की रात को इकट्ठी होकर एक छोटी-से भोज का आयोजन करती है औऱ तरह – तरह के पकवान खाती हैं हंसती खिलखिलातीै हैं और गाँव भर के पुरूषों का नाम लेकर उसे संतान देने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहती है
“फलाने की वहु को पेट पिराने,
हांप्पू- हांप्पू
अर्थात नाम लिये जाने वाले पुरुष के यहाँ जल्दी ही बच्चा होने बाला है और उसकी बलाऔं को हम लोग भस्म किये देते हैं।
शादी के बाद किसी भी दशहरे के दिन इसका उद्यापन गमगीन माहोल में बुन्देलखण्ड के प्रमुख पकवानों का भोग अपने सुआटा को लगा कर दुखी होकर विदा के साथ किया जाता है “हे सुअटा अब शादी के उपरान्त मेरा गाँव गलियाँ चौवारा आँगन और आँगन मे एक चबूतरे पर बैठे आप सभी से नाता छूट गया है और अब मैं आप से इस पूजा से विदा लेती हूँ।
यह परम्परा तेजी से ख़त्म होने के कगार पर है। शहर के कुछ एक मोहल्लों तक और ग्रामीण इलाकों तक ही यह सीमित रह गयी है ।