मोनिया नृत्य
1 min read

मोनिया नृत्य

विन्ध्य पर्वत मालाओंओ से घिरा बुंदेलखंड का यह अंचल वैसे तो अपने अभावों और बदहाली के कारण जाना जाता है । इस बदहाल इलाके में ऐसी कई परम्परा और और लोक साहित्य है जो यहाँ की अपनी एक अलग पहचान बनाता है ।पर काल के गर्त में धीरे- धीरे ये परम्पराएं समाप्त होती जा रहीं हें । ऐसी ही एक परम्परा है दिवारी गीत और नृत्य । दिवाली के दूसरे दिन जहां इनके ये दल हर गली और नुक्कड़ पर दिख जाते थे अब सीमित होते जा रहे हें ।

दिवारी गीत और नृत्य मूलतः चरागाही संस्कृति के गीत ह़े , यही कारण है की इन गीतों में जीवन का यथार्थ मिलता है । फिर चाहे वह सामाजिकता हो,या धार्मिकता , अथवा श्रृंगार या जीवन का दर्शन । ये वे गीत हें जिनमे सिर्फ जीवन की वास्तविकता के रंग हें , बनावटी दुनिया से दूर , सिर्फ चारागाही संस्कृति का प्रतिबिम्ब । अधिकाँश गीत निति और दर्शन के हें । ओज से परिपूर्ण इन गीतों में विविध रसों की अभिव्यक्ति मिलती है ।

दिवारी गीत दिवाली के दूसरे दिन उस समय गाये जाते हें जब मोनिया मौन व्रत रख कर गाँव- गाँव में घूमते हें । दीपावली के पूजन के बाद मध्य रात्रि में मोनिया -व्रत शुरू हो जाता है । गाँव के अहीर – गडरिया और पशु पालक तालाब नदी में नहा कर , सज-धज कर मौन व्रत लेते हें । इसी कारण इन्हे मोनिया भी कहा जाता है ।

द्वापर युग से यह परम्परा चली आ रही है , इसमें विपत्तियों को दूर करने के लिए ग्वाले मौन रहने का कठिन व्रत रखते हैं। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक रखना पड़ता है। इस दौरान मांस मदिरा का सेवन वर्जित रहता है । तेरहवें वर्ष में मथुरा व वृंदावन जाकर यमुना नदी के तट पर पूजन कर व्रत तोड़ना पड़ता है।

शुरुआत में पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है। परम्परा के अनुसार पूजन कर पूरे नगर में ढोल,नगड़िया की थाप पर दीवारी गाते, नृत्ये करते हुए हुए अपने गंतव्य को जाते हैं। इसमें एक गायक ही लोक परम्पराओं के गीत और भजन गाता है और उसी पर दल के सदस्य नृत्य करते हैं ।

हालांकि मोनिया कोंड़ियों से गुथे लाल पीले रंग के जांघिये और लाल पीले रंग की कुर्ती या सलूका अथवा बनियान पहनते हें । जिस पर कोड़ियो से सजी झूमर लगी होती है , पाँव में भी घुंघरू ,हाथो में मोर पंख अथवा चाचर के दो डंडे का शस्त्र लेकर जब वे चलते हें तो एक अलग ही अहशास होता है । मोनियों के इस निराले रूप और उनके गायन और नृत्य को देखने लोग ठहर जाते हें।

दिवारी गीतों का चलन कब शुरू हुआ इसको लेकर अलग -अलग मान्यताएं हें । कुछ कहते हें की दिवारी गीतों का चलन 10वी . शत्दी में हुआ । तो कुछ का मानना है की द्वापर में कालिया के मर्दन के बाद ग्वालों ने श्री कृष्ण का असली रूप देख लिया था। श्री कृष्ण ने उन्हें गीता का ज्ञान भी दिया था। गो पालकों को दिया गया ज्ञान वास्तव में गाय की सेवा के साथ शरीर को मजबूत करना था। श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया कि इस लोक व उस लोक को तारने वाली गाय माता की सेवा से न केवल दुख दूर होते हैं बल्कि आर्थिक समृद्धि का आधार भी यही है। इसमें गाय को 13 वर्ष तक मौन चराने की परंपरा है। आज भी यादव (अहीर) और पाल (गड़रिया) जाति के लोग गाय को न सिर्फ मौन चराने का काम करते हैं |

एक और मान्यता है कि भगवान कृष्ण गोकुल में गोपिकाओं के साथ दिवारी नृत्य कर रहे थे, गोकुलवासी भगवान इंद्र की पूजा करना भूल गए तो नाराज होकर इंद्र ने वहां जबर्दस्त बारिश की, जिससे वहां बाढ़ की स्थिति बन गई। भगवान कृष्ण ने अपनी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर गोकुल की रक्षा की, तभी से गोवर्धन पूजा और दिवारी नृत्य की परम्परा चली आ रही है।

अब यह परम्परा अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है । गाँव ही सिमट रहे हें गो पालन घटता जा रहा है , गौचर भूमि पर कब्जा हो गया जंगल जा नहीं सकते ऐसे में चरवाहे भी सिमित होते जा रहे हें । जिसका परिणाम है की अब पहले की तरह ये दल नहीं दिखते हें । हालांकि कुछ लोग इस परम्परा को जीवित बनाए रखने का प्रयास कर रहें हें ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *